लालू प्रसाद यादव को एक स्पेशल CBI कोर्ट ने चारा घोटाले में दोषी पाया है। उनकी सज़ा की मियाद नए साल के शुरुआत में तय की जाएगी। जहां एक ओर उनकी तरफ़दारी में लोग ये बात याद दिला रहे हैं कि अभी उच्च स्तरीय न्यायालयों में अपील नहीं की गई है। वहीं उनके विरोधी खुशियां माना रहे हैं।
बिहार के राजनैतिक समीकरणों में लालू एक महत्वपूर्ण नाम रहे हैं। ये तो मुमकिन है कि आप उन्हें नापसंद करते हों लेकिन ये हरगिज़ मुमकिन नहीं कि आप उनके होने-ना होने से अनजान हो। होली मिलन हो या चुनावी रैली, लालू को देखने बड़ी भीड़ उमड़ती है। बिहार की पिछड़ी जाती के लोग उन्हें अपना मसीहा मानते हैं। लेकिन, जेल जाने की संभवता से जूझते लालू के विरोधी ये सोचने की ग़लती तो नहीं कर रहे कि लालू की जेल यात्रा मतलब राजद का अंत?
शायद ऐसा सोचना ठीक ना हो। भारत में नेताओं का जेल में आना-जाना लगा ही रहता है और इसके दो प्रतिपेक्ष हो सकते हैं। पहला, सामाजिक सम्मान में गिरावट। लेकिन नेताओं को अक्सर सामाजिक सम्मान से गहरा लगाव होता ही नहीं है। अपने क्षेत्र के लोगों के सुख-दुःख में जो नेता उपस्थित रहता है उसे सम्मानित होने की कोई दरकार नहीं।
दूसरा प्रतिपेक्ष है शौर्य में अकस्मात् वृद्धि! ये शुरू से देखा गया है कि किसी नेता के जेल जाने, या बीमार पड़ जाने, या किसी दुर्भाग्य को प्राप्त होने से उस नेता की शौर्यगाथा में चार चांद लग जाते हैं! लालू वही नेता हैं जो 1997 में जब जेल गए थे, तब इतनी लोकप्रियता बना के गए थे कि उसके बाद आठ साल तक राबड़ी देवी मुख्यमंत्री का पद संभाले रहीं।
भारत में इस क़िस्म की जेल से जुड़ी लोकप्रियता एक आम बात है। सन 77 में इंदिरा गांधी की गिरफ़्तारी आज तक, जनता पार्टी की सबसे बड़ी भूल मानी जाती है। हथकड़ी की माँग करती इंदिरा गांधी एक राष्ट्रीय हीरो बन बैठीं थीं। फिर जयललिता की गिरफ़्तारी भी उनके राजनैतिक कार्यकाल की सबसे हैरतंगेज़ जीत की ज़िम्मेदार बनी। उनके समर्थक उनके लिए जान तक देने को तैयार थे। शिबू सोरेन के जेल जाने के बाद भी उनके पुत्र हेमंत सोरेन 2013 में चुनाव जीतकर राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे।
फिर, यूपी, बिहार में तो नेताओं के जेल जाने और जेल ही से चुनाव जीतने की लम्बी परम्परा रही है। मोहम्मद शाहबुद्दिन तो जेल में बैठ कर भी चुनाव जीतने की जटिल कला जानते हैं! बसपा के मुख़्तार अंसारी भी इस कला के बड़े जानकारों में से हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहां जेल यात्रा नेता के लिए लोकप्रियता का परचम साबित हुई है।
लेकिन लालू के दोषी क़रार होने के साथ कुछ और भी तथ्य जुड़े हैं। जगन्नाथ मिश्रा की दोष मुक्ति लालू के समर्थकों को फूटी आँख नहीं भा रही। उनका कहना है के “ऊँची जात” के मिश्र को राहत देना और “छोटी जात” के गोप नेता लालू को सज़ा देना एक सोची-समझी साज़िश के तहत हो रहा है।
बिहार जैसे राज्य में जहां जात-पात आज भी चुनाव नतीजों का मूल आधार बन सकती है, वहां लालू और उनकी पार्टी को इन हालात में समर्थकों की कमी नहीं। भावुक जनता को अपने गोप नेता की गिरफ़्तारी मंज़ूर नहीं।
वहीं दूसरी ओर, नीतीश कुमार की अंतरात्मा भाजपा के साथ मेल बना बैठी है। मोदी जी और अमित शाह को चुनाव के दौरान नीतीश कुमार ने जितनी खरी-खोटी सुनाई थी, उससे वो उबर चुके हैं। ऐसे में अगले आम चुनाव में जनता उनपर और उनकी अंतरात्मा पर कितना विश्वास कर सकेगी ये कहना मुश्किल है। इस सब के बीच, लालू की गिरफ़्तारी जनता को उनकी तरफ़ आकर्षित कर सकती है।
एक बात ये भी है कि तेजस्वी ने अब पार्टी की कमान संभाल ली है। वे राजद के पुराने और कष्टदायक समर्थकों को छांटने का काम करने की सोच रहे हैं। बहुत मुमकिन है कि लालू के जेल जाने से, पार्टी के भीतर भी सुधार कर लिया जाए।
सौ बात की एक बात ये है कि जिस सरलीकरण से लालू के दोषी ठहराये जाने को देखा जा रहा है, वो किसी भी लिहाज़ से सही नहीं है। लालू शुरू ही से एक लोकप्रिय नेता रहे हैं और आज के “अंतरात्मा प्रेरित” परिवेश में चुनावी दृष्टिकोण से एक मज़बूत मक़ाम पे खड़े हैं।
(इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार ‘जनता का रिपोर्टर’ के नहीं हैं, तथा ‘जनता का रिपोर्टर’ उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है)