राजस्थान में मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और जजों को बचाने वाले विवादित विधेयक को लेकर वसुंधरा राजे सरकार बैकफुट पर आ गई है। अब यह बिल सेलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया है। माना जा रहा है कि भारी विरोध के चलते इस विधेयक को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने के लिए फैसला लिया गया है। वसुंधरा सरकार ने ‘दंड विधियां (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017’ को पिछले महीने 23 अक्टूबर को विधानसभा में पेश किया था।
File Photo: The Indian Expressपिछले महीने अध्यादेश के जरिये लागू किए गए कानून में अदालतों पर भी सरकार की अनुमति के बिना मंत्रियों, विधायकों तथा सरकारी अधिकारियों के खिलाफ किसी भी शिकायत पर सुनवाई से रोक लगाई गई है। कानून के मुताबिक मंज़ूरी लिए बिना किसी सरकारी अधिकारी के विरुद्ध कुछ भी प्रकाशित करने पर मीडिया को भी अपराधी माना जाएगा, और पत्रकारों को इस अपराध में दो साल तक की कैद की सजा सुनाई जा सकती है।
वसुंधरा राजे सिंधिया का वहिष्कार करेगा राजस्थान पत्रिका
राजस्थान पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक भले ही इस विवादित कानून को सेलेक्ट कमेटी को सौंप दिया है, लेकिन राज्य में अभी भी कानून लागू है। पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि चाहे तो कोई पत्रकार टेस्ट कर सकता है। किसी भ्रष्ट अधिकारी का नाम प्रकाशित कर दे। दो साल के लिए उसे जेल हो जाएगा। अखबार ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया है कि सरकार का निर्णय जनता की आंखों में धूल झोंकने वाला है।
इस काले कानून के विरोध में राजस्थान पत्रिका अखबार ने राज्य के मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और उनसे संबंधित समाचारों का बहिष्कार करने का फैसला किया है। पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे इस काले कानून को वापस नहीं ले लेतीं, तब तक राजस्थान पत्रिका उनके एवं उनसे सम्बन्धित समाचारों का प्रकाशन नहीं करेगा।
पत्रिका ने आगे लिखा है कि हमारे सम्पादकीय मण्डल की सलाह को स्वीकार करते हुए निदेशक मण्डल ने यह निर्णय लिया है कि जब तक मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे इस काले कानून को वापस नहीं ले लेतीं, तब तक राजस्थान पत्रिका उनके एवं उनसे सम्बन्धित समाचारों का प्रकाशन नहीं करेगा।
इस बिल का क्यों हो रहा है विरोध?
दरअसल, इस विधेयक का इसलिए विरोध हो रहा है क्योंकि इससे नेताओं, जजों और अधिकारियों के खिलाफ किसी भी मामले में आसानी से कार्रवाई नहीं हो पाएगी और ये उन्हें बचाने का ही काम करेगा। ये विधेयक क्रिमिनल कोड ऑफ प्रोसिड्योर,1973 में संशोधन करती है। इसके तहत जब तक राजस्थान सरकार किसी मामले की जांच करने के आदेश नहीं देती, तबतक मीडिया लोकसेवकों के नाम उजागर नहीं कर सकता है।
सीआरपीसी में संशोधन के इस बिल के बाद सरकार की मंजूरी के बिना इनके खिलाफ कोई केस दर्ज नहीं कराया जा सकेगा। यही नहीं, जब तक एफआईआर नहीं होती, मीडिया में इसकी रिपोर्ट भी नहीं की जा सकेगी। ऐसे किसी मामले में किसी का नाम लेने पर दो साल की सजा भी हो सकती है। यह विधेयक मौजूदा या सेवानिवृत न्यायधीश, दंडाधिकारी और लोकसेवकों के खिलाफ उनके अधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए कार्य के संबंध में कोर्ट को जांच के आदेश देने से रोकती है।
इसके अलावा कोई भी जांच एजेंसी इन लोकसेवकों के खिलाफ अभियोजन पक्ष की मंजूरी के निर्देश के बिना जांच नहीं कर सकती। अनुमोदन पदाधिकारी को प्रस्ताव प्राप्ति की तारीख के 180 दिन के अंदर यह निर्णय लेना होगा। विधेयक में यह भी प्रावधान है कि तय समय सीमा के अंदर निर्णय नहीं लेने पर मंजूरी को स्वीकृत माना जाएगा।
विधेयक के अनुसार जबतक जांच की मंजूरी नहीं दी जाती है तब तक किसी भी न्यायधीश, दंडाधिकारी या लोकसेवकों के नाम, पता, फोटो, परिवारिक जानकारी और पहचान संबंधी कोई भी जानकारी न ही छापा सकता है और ना ही उजागर किया जा सकता है। विवादित बिल को जयपुर हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है।