कितना तंग सूट है, कोई ऐसे कॉलेज जाता है क्या, पापा ने देख लिया तो घर में बैठना पड़ सकता है, उफ! अम्मी ये ‘चांदनी सूट’ है, ऐसा ही होता है, सफ़ेद और चुस्त, देखा तो था आपने चांदनी फ़िल्म में, याद नहीं? वो ये बोलते-बोलते अपना बैग उठाकर माथे पर आए चार बालों को मुंह से फूंक कर अदा से अपना सफ़ेद दुप्पटा लहराते हुए चल दी, अम्मी उसे कॉलेज जाते हुए दुलार से देख रही थीं कि तभी पड़ोस की आंटी ने कहा कॉलेज जाकर कुछ मॉडन नहीं हो गई आपकी गुड़िया? अम्मी बगैर जवाब दिए घर में लौट आईं।
एक उम्र के बाद मां दोस्त बन जाती है और वो उम्र शायद कॉलेज की दहलीज़ ही होती होगी। हमारे घर में भी कुछ ऐसा ही हुआ मेरी बड़ी बहन ने कॉलेज जाना शुरू किया तो वो हमारे खानदान की ही नहीं शायद कॉलोनी की पहली लड़की रही होगी जिसने रेगुलर कॉलेज का चेहरा देखा। घर का माहौल बेहद सख़्त था और दिल्ली पुलिस में नौकरी करने वाले पापा के हम क़ैदी थे और वो हमारे घर के जेलर साहब। पापा घर पर होते तो घर में क़र्फ्यू लगा रहता था। लेकिन अम्मी हमेशा हमारी इमाम (अगुवा) रहीं वो भले ही पढ़ी लिखी नहीं थीं पर अपनी बेटियों को तालिम दिलाने के लिए हमेशा बुलंद खड़ी रहतीं।
जब हम बेटियों ने घर से बाहर क़दम रखा तो अम्मी को तालिम के साथ ही दिलकश दिल्ली के किस्से सुनाने लगीं उसी दौरान फ़िल्म आई ‘चांदनी’, कॉलेज में फ़िल्म का बड़ा चर्चा था सो अापा ने भी घर पर प्रस्ताव रखा की वीडियो मंगाया जाए और ‘चांदनी’ नाम की फ़िल्म देखी जाए, उस एक फ़िल्म को घर में चलाने के लिए जो जंग लड़ी गई वो महिला मोर्चा की आरक्षण की माँग से कम न थी, पहले अम्मी की मिन्नतें की गईं और फिर बात पापा तक पहुंची उन्हें जब एहसास हुआ की बेटियों की फरमाइश है, तो नाराज़ हो गए, पर हम भाई बहनों ने भी हार न मानी।
फिर वो दिन आया जब घर में वीडियो नाम की बला आई, कई तरह के ताम झाम के साथ देखते ही देखते पूरा घर चांदनी फ़िल्म देखने वालों से भर गया, ऐसा लग रहा था कि प्रेमचंद की कहानी का कोई पन्ना निकाल कर पुलिस कॉलोनी के उस छोटे से क्वार्टर में गिर गया हो, ख़ैर फ़िल्म शुरू हुई और जैसे ही फ़िल्म में 80 के दशक की दिल्ली की सड़के नज़र आईं तो सबका उत्साह ऐसा बढ़ गया जैसे फ़िल्म यश चोपड़ा ने नहीं बल्कि कॉलोनी के बाहर चोपड़ा स्टोर वाले भइया ने बनाई हो।
फ़िल्म की शुरुआत उस दौर में बनने वाली शादी की वीडियो एल्बम की याद दिला रही थी, श्रीदेवी के लहंगे, मेकअप और फिर लेडी संगीत का डांस देख सभी औरतें झूम उठीं, उनके लिए तो फ़िल्म के पैसे उसी वक़्त वसूल हो गए। कहानी आगे बढ़ी तो रूमानी हो गई, ख़ूबसूरत श्रीदेवी सफ़ेद लिबास में कभी गुलाब तो कभी बारिश की बूंदों में तो कभी दूधिया चांदनी में भीगी नज़र आई तो फ़िल्म देखने वाला हर उम्र का शख़्स ख़ुद को श्रीदेवी का दीवाना कहलाने में फ़ख़्र महसूस करने लगा।
बहरहाल, फ़िल्म की कहानी जब विदेश पहुंची तो नई उम्र के हम लड़के लड़कियां आंखे फाड़ फाड़ के एक एक सीन को पी जाने की कोशिश कर रहे थे और हम लोगों में से जो पंजाब केसरी पढ़ कर बैठा था बता रहा था कि फ़िल्म की शूटिंग स्विट्ज़रलैंड में हुई है, उस वक़्त मौजूद लोगों में सबसे जानकार आदमी का टाइटल जीत ले गया था। विदेशी लोकेशन में ख़ूबसूरत साड़ी में लिपटी श्रीदेवी को देखकर सच में कई दफ़ा तो ये तय करना मुश्किल हो गया कि दोनों में से ज़्यादा ख़ूबसूरत कौन है? स्विट्ज़रलैंड या श्रीदेवी, जवाब था श्रीदेवी।
मैं अब भी ठीक से इस बात का जवाब नहीं दे पा रही हूं की क्या मैं श्रीदेवी की फैन हूं? सच तो पता नहीं लेकिन ये बात तय है कि मैं ‘चांदनी’ की दीवानी ज़रूर हूं, ज़ंबा से कम, आंखों से ज़्यादा बोलने वाली चांदनी, जिसकी हर अदा में एक अंदाज़ था जिसके अंदाज़ ने उस दौर की हर लड़की को एक सफ़ेद सूट अपने वॉडरोब में शामिल करने को मजबूर कर दिया जिसने जता दिया की पब्लिक को सात गज़ की साड़ी पहन कर भी अपना मुरीद बनाया जा सकता है।
श्रीदेवी की अचानक मौत की ख़बर पढ़कर मैं सुन्न हो गई एक झटके में मेरी आंखों के सामने वो गुज़रा वक़्त तैरने लगा जो हमने श्रीदेवी की एक फिल्म के साथ जीया था। फ़िल्म एक थी लेकिन उससे जुटी यादें हज़ार, जिन्हें हम अक्सर याद किया करते हैं लेकिन उन यादों को कभी ऐसे मुकाम पर भी याद करना होगा ये सोचा नहीं था क्योंकि…
रहने को सदा दहर (दुनिया) में आता नहीं कोई
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई – कैफ़ी आज़मी
(नाजमा खान वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं।)