”कारवाँ गुज़र गया-अलविदा नीरज दादा”

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राष्ट्रकवि दिनकर ने उन्हें हिंदी की वीणा कहा था ! वाचिक परंपरा के वे एक ऐसे सेतु थे जिस पर चलकर, महाप्राण निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र की पीढ़ी के श्रोता मुझ जैसे नवाँकुरों तक सहज ही पहुँच सके!

अंग्रेज़ी, सँस्कृत, उर्दू और हिंदी में उनकी समान्तर गति थी! लय के प्रबल संवाहक, गीत की अहर्निश गंगोत्री के नवल भगीरथ, भाषा के निरंतर परिमार्जन और अभिवृद्धि के गेय शिल्पी महाकवि पद्मश्री,पद्मभूषण डॉ गोपालदास नीरज ने तिरानवें साल की पूर्णकाम आयु में शरीर की चदरिया समेट कर प्रतीक्षारत वैकुंठ की गलियों को गुंजरित कर ही दिया!

हज़ारों गीत,लाखों रुबाइयाँ,सैकड़ों शेर और असंख्य शब्द अपनी भीगी पलकों से उनकी इस कल्पना जैसी जीवन-यात्रा का पूर्ण-चरण निहार रहे हैं ! मेरे मन-मस्तिष्क में उनके सानिध्य में गुज़रे हज़ारों मंच,यात्राएँ, किस्से तैर रहे हैं!

मैं उन्हें “गीत-गन्धर्व” कहता था ! जैसे किसी सात्विक उलाहने के कारण स्वर्ग से धरा पर उतरा कोई यक्ष हो ! यूनानी गठन का बेहद आकर्षक गठा हुआ किन्तु लावण्यपूर्ण चेहरा, पनीली आँखें, गुलाबी अधर, सुडौल गर्दन, छह फुटा डील-डौल, सरगम को कंठ में स्थायी विश्राम देने वाला मंद्र-स्वर, ये सब अगर भाषा के खाँचे में डल कर सम्मोहन की चाँदनी में भू पर उतरे तो जैसे नीरज जी कहलाए!

हज़ारों रातों की जगार अपनी पलकों पर सजाये गीत-गंधर्व नीरज ने देश-विदेश के हिंदी प्रेमियों को कविसम्मेलन का श्रोता बनाया! कविसम्मेलनों पर नीरज जी का यह स्थायी ऋण है ! मृत्यु के दूत से संवाद का उनका लोकप्रिय गीत “ऐसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ!

गीत एक और ज़रा झूम के गए लूँ तो चलूँ !” हर रोज़ सुना ,पर शायद इस बार यमराज ने कोई बहरा-संवेदनाहीन दूत भेज दिया ! लेकिन शायद मृत्यु के दूत भूल गए कि….नीरज को ले जाने वालों नीरज गीतों में ज़िंदा है!

अंतिम प्रणाम पूर्वज

(डॉ कुमार विश्वास के फेसबुक पेज से, लेखम स्वयं एक प्रसिद्द कवि हैं )

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