“भारत में गर न होता मुसलमान, तो सब कुछ कितना चंगा होता है न श्रीमान?”

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मुसलमान न होते तो जी चंगा होता
दंगा-वंगा होता न ही कोई पंगा होता

ख़ुशहाली होती घर-घर में
बदहाली का न टंटा होता

खिलते फूल चमन-चमन
रहते सब ही मौज मगन

बेरोज़गारों की फ़ौज न होती
भ्रष्टाचारियों की मौज न होती

फ़्रॉड न होता दफ़्तरों में
नेकी होती अफ़सरों में

होता न भईया कोई बखेड़ा
चमचम होता गांव खेड़ा

हरियाली होती फिर जंगल-जंगल
नदियां बहतीं कल-कल,कल-कल

वादी न होते अदालतों में
बंद न होता कोई सलाख़ों में

बढ़ती आबादी का न होता फ़ोड़ा
तरक्की में फ़िर कौन बनता रोड़ा

डर और ख़ौफ़ की न कोई गिटपिट होती
आतंकवाद की फिर कब किटकिट होती

भीड़ भड़क्का चिल्लमपों
कब होती ये खौं खौं खौं

बंदूकें चलतीं और न ही चलता बम
हथियारों के कारख़ानों में लगता ज़ंग

सेना-पुलिस के हाथों में कब होते डंडे
काम न होता कोई, सब उड़ाते पतंगे

चकमक चकमक, छल छल छल
लक़दक-लक़दक, कल-कल-कल

मुल्क अपना होता सुंदर न्यारा
इल्म और सभ्यता का गहवारा

अरब होते यहां न कोई अफ़गान
भारत की होती दुनिया में शा……….न

ताजमहल का कोई निशान न होता
बिन बुलाया कोई मेहमान न होता

लाल किले की ज़मीन बिल्डर की होती
ग्रैंडट्रैंक पर भईया होती हरीभरी खेती

बिरयानी कोफ़्ते, कवाब और श्रीमाल
ऐसे ज़ायकों का न होता कोई बवाल

सब कुछ कितना अच्छा होता
प्यारा भरा और सच्चा होता

सब कुछ…… कितना अच्छा होता
प्यारा भरा और सच्चा होता

अचकन-पजामे, शेरवानी-दुपट्टे
कुर्त-शलवार, के फिर न होते क़िस्से

उर्दू हिंदी की कब होती पहचान
संस्कृत की बस होती तब शा……….न

सब कुछ सच्चा शुद्ध ही होता
कब कोई यहां युद्ध ही होता…?

कमबख़्त बाहरी लुटेरों ने छीनी आन
वर्ना भारत की होती अलग…. पहचान

अरब अफ़गान यहां आए सो आए
कमबख़्तों ने क़ब्रें भी यहीं बनाए

लूट-पाट के वे अपने मुल्क न लौटे
आख़िर सांस त इस मिट्टी में लोटे

शतक़ों यहां की धरती पर राज किया
जाने तो कैसा-कैसा सबने काज किया

भारतीय सभ्यता का नाश किया
इसी लिए तो कहती हूं

गर भारत में न होता मुसलमान
तो सब कुछ कितना चंगा होता है न श्रीमान!!

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