आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी
लगातार ये नारे लगाए जा रहे थे, लग रहा था कि पूरा शहर एक ही फेफड़े से सांस ले रहा हो। वो एक राजनीतिक मांग से कहीं ज़्यादा था। वो एक तराना था, एक मंत्र जाप, एक इबादत लग रहा था। अरुंधति रॉय की किताब ‘The Ministry of Utmost Happiness’ की इन लाइनों जैसा ही मंजर मेरी आंखों के सामने था। लेकिन ये कश्मीर नहीं, दिल्ली का जोर बाग़ था जिससे क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर देश की संसद तक JNU के छात्र अपनी आवाज़ पहुंचाने की कोशिश में लगे थे।

सूरज ढल चुका था, रात सड़क पर उतर रही थी TV कैमरों की लाइट इन मजबूर स्टूडेंट्स के दिल की आग को और भड़का रही थी। गुरबत और मुफ़लिसी के मारे दिलों से निकल रहे इंक़लाबी नारों से रात के अंधेरे में उम्मीद की बिजली कौंध रही थी। ज़मीन से जुड़े ये स्टूडेंटे छोटी-छोटी टोलियों में सड़क पर बिछे पड़े थे। ये थके हुए तो लग रहे थे पर हार इनके आस-पास भी दिखाई नहीं दे रही थी। हाथ में ढप लिए बग़ावती लहज़े में फिल्मी गानों को अपने हिसाब से जोड़ घटाकर तैयार कर गा रहे थे –
कहब तो लग जाई भक्क से
बड़े-बड़े लोगों के ऑक्सफोर्ड और कैब्रिजी
और भइया ट्यूिशन अलग से
हमरे बच्चवन के महंगा पढ़ाई, और भइया लाठी अलग से
ये इकलौता स्लोगन नहीं था जिसे गाने से चुरा लिया गया था, जिस वक़्त इन स्टूडेंट्स को संसद की तरफ़ बढ़ने से रोकने के दौरान पहली लाठी ने स्टूडेंट के माथे को सुर्ख किया उसी दम ना जाने कहां से फ़ैज़, इक़बाल, जालिब, पाश, बिस्मिल जिन्दा हो उठे। जब पढ़ाई के लिए लड़ाई की गई तो फ़ैज़ बोल उठ्ठे कि बात रहबर तक पहुंचे या ना पहुंचे पर दुनिया तक अपनी बात ज़रूर पहुंचना क्योंकि ”बोल की लब आज़ाद हैं तेरे” कैम्पस से संसद की तरफ़ बढ़ते इन स्टूडेंट्स को हर तरह से रोकने की कोशिश जारी थी कि तभी पाश भी चले आए अपने हक की लड़ाई लड़ रहे इन छात्रों की तरफ़ से बोलने लगे –
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
मेरा क्या करोगे मैं तो घास हूं
मैं आपके हर किए धरे पर उग आऊंगा।
लाठी खाई, ख़ून बहाया और जब भागते-भागते दम लेने के लिए एक जगह फिर से टोली जमा होने लगी तो पुलिस जिसके पास लाठी, डंडे और बंदूक़ थी छात्रों को किसी भी हालात में JNU गेट के अंदर ढकेल आना चाहती थी पुलिस की ये कार्रवाई बता रही थी कि प्रशासन डरा हुआ था और तभी गोरख पांडे भी गले में गमछा डाले अपने देहाती स्टाइल पर पहुंच गए और इस डर का सबब बताने लगे-
वो डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना बंद कर देंगे
और ये डर ही पूरे फ़साद की जड़ थी वो ग़रीब के ना डरने से इतना डरे हुए थे कि उसके इकलौते हथियार इल्म पर अपनी हुकूमत का चाबूक चला रहे थे। पर लाठी खाने वालों ने भी कह दिया था कि-
ज़मी पर बहते ख़ून का हिसाब चाहता हूं
मैं अब गुलाब नहीं इंक़लाब चाहता हूं।
(लेखक टीवी पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)