“2014 के घोषणा पत्र का अब चेहरा, चरित्र और चाल क्या है? सियासत करने वाले तो बदलते रहते हैं लेकिन आवाम के हालात कब बदलेंगे?”

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साल 2019 क़रीब है और तय है कि ये साल देश के इतिहास में बेहद अहम माना जाएगा, चाहे ये सरकार एक बार फिर से सत्ता में आए या फिर नहीं दोनों ही सूरतों में। बड़े वादे और सुंदर सपने दिखाकर आवाम के दिल को जीतना हर राजनेता का हुनर है। चार साल पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक सपनों की बेहद ख़ूबसूरती से दुकान सजाई गई थी जिसमें सबकुछ पहले से बेहतर होने वाला था। लेकिन चार साल में क्या वो सपने हक़ीक़त में तब्दील हुए?

(AFP)

ख़ैर, लेकिन अब फ़ैज़ की वो नज़्म दोहराई जाएगी जिसमें हुक़्मरानों ने सवाल किए गए हैं, आवाम को सपने दिखाकर सियासतदानों ने अपने सपने पूरे किए थे तो अब ये लाज़मी हो गया है कि हम पूछें कि जिस ‘अच्छे दिन’ का वादा किया गया था क्या वो आया? 2014 के घोषणा पत्र का अब चेहरा, चरित्र और चाल क्या है? सियासत करने वाले तो बदलते रहते हैं लेकिन आवाम के हालात कब बदलेंगे?

एक आम आदमी जो भले ही सपने बड़े देखता है लेकिन हक़ीक़त में सरकारी की ग़लत नीतियों (नोटबंदी और जीएसटी) के ज़ुल्म और सितम के भारी पहाड़ के नीचे दबा होता है। लेकिन पांच साल बाद ही सही अब उसकी बारी है वो भी देखना चाहता है कि अबकी बार किन वादों का पिटारा खोलकर वोट की भीख मांगी जाएगी। क्या वाकई वो दिन आएगा जब महकूमों (शोषित) के पांव तले सारी परेशानियां रौंद के रूई की तरह उड़ा दी जाएगी।

बेशक ये लाज़मी है कि चाहें घोषणा पत्र हो या फिर बजट… इस वर्ग (शोषित) को सबसे ज़्यादा सपने दिखाए जाते हैं लेकिन अब बारी इन लोगों की होगी अब ये देखेंगे कि जो वादा किया गया था क्या वो पूरा हुआ? बिल्कुल लाज़मी है कि सियासी फ़ायदे के लिए किए गए खिलवाड़ पर सवाल किया जाए और देखा जाए कि जवाब क्या है और देखने वालों की क़तार में पहला नाम उन किसानों का होगा जिनका अबतक सबसे ज़्यादा सियासी इस्तेमाल किया गया।

रोहित वेमुला और नजीब की अम्मी की तरह तमाम मांए सरकार की तरफ़ देखेंगी और पूछेगी कि उनके बेटों के साथ क्या हुआ? सदियों से ख़ामोश हिंदू का मंदिर और मुसलमान की मस्जिद भी देखेगी कि आख़िर कबतक उन्हें मोहरा बनाया जाएगा और उनकी जगह पढ़ाई, रोज़गार और हेल्थ को मुद्दा बनाया जाएगा।

लाज़मी तो ये भी होगा कि पूछा जाए कि भीमा कोरे गांव के नाम पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई क्यों की गई? 60 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल भरवाने वाले जब एक लीटर के लिए 80 रुपये से ज़्यादा पैसे निकालते हैं तो लाज़मी है उनकी नज़र ख़ाली पर्स पर जाती होगी और बेबसी के सवाल किससे किए जाए दूर तक दिखाई नहीं देते हो, लेकिन जब आवाज़ (मीडिया) बनने का दम भरने वाले ही कह दें कि पेट्रोल महंगा है तो क्या हुआ, मोबाइल का डाटा तो सस्ता है… तो बेशक लाज़मी ये भी हो जाता है कि हम समझे कि मामला क्या है?

राहुल गांधी मंदिर में और 2014 में टोपी न पहने वाले मस्जिद में… तो लाज़मी है कि पूछा जाए ‘ये क्या हो रहा है भाई ये क्या हो रहा है? हम पूछें या ना पूछें लेकिन इतिहास तो गवाह है जब ताज उछाले गए और तख़्त गिराए गए। और अनल हक़ यानी की सच्चाई का एक नारा बुलंद हुआ कि ख़ल्क़-ए- ख़ुदा मतलब प्रजा ही है और प्रजा ही रहेगी (लोकतंत्र) जो हम भी हैं और तुम भी हो।

फ़ैज़ उन शायरों में से हैं जिनके बग़ैर उर्दू अदब अधूरा माना जाता है, सियासत के खिलाफ़ जब भी उनकी क़लम चली तो उस कलम को क़ैद करने की कोशिश की गई लेकिन क्या मालूम था कि क़ैद में तो उनकी क़लम की धार और पैनी हो जाएगी उन्हीं की लिखी ये नज़्म जब भी गूंजी हुक़्मरानों की पेशानी पर बल पड़ गए लेकिन पाकिस्तान के ‘कोक स्टूडियो’ ने जब इस तराने को एक बार फिर से पेश किया तो सरहदों की दीवार को लांघते हुए एक सवाल हमारे देश में भी गूंजना चाहिए कि ‘लाज़मी है कि हम देखेंगे जिस दिन का वादा है हम देखेंगे।’

(लेखक टीवी पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति ‘जनता का रिपोर्टर’ उत्तरदायी नहीं है।)

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