विश्वनाथ चतुर्वेदी
भारत के सविधान की निर्माता संसद, संसद द्वारा संवैधानिक संस्थाओं को दी शक्तियां कल प्रधानमंत्री द्वारा तार-तार कर दी गईं।
संवैधनिक संस्थाओ के संरक्षक द्वारा आज़ाद भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी। संवैधानिक संस्था नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा लगाए गए 5 करोड़ रुपए के जुर्माने के बाद भी प्रधानमंत्री द्वारा श्री-श्री के कार्यक्रम में शिरकत कर ,यह साबित कर दिया गया कि चुनावी कर्ज उतारने के लिए संविधान की भी धज्जियां उड़ाने से नहीं हिचकुंगा।
आज यह साबित हो गया कि राम मंदिर की तरह गंगा सफाई भी चुनावी नारा था। हक़ीक़त में सत्ता पाने का स्लोगन मात्र था। न इनका मंदिर से सरोकार है न नदियो के बचाने में दिलचस्पी। सिर्फ चुनावी कर्ज उतारना ही इनका फर्ज है।
कल की अप्रत्याशित धटना देख ईसा पूर्व दूसरी सदीं में मौर्य बंश के अंतिम शासक बृहद्रथ के कुशासन की याद आती है जब उसके सत्ता तंत्र पर बढ़ते प्रकोप से पीड़ित जनता ने सेनानी पुस्यमित्र के नेतृत्व में राजसत्ता को उखाड़ कर नयी व्यवस्था को आत्मसात किया था।
उस काल में राजा अपने कर्तव्यों से बिमुख हो गए और जब उन्होंने शासन तंत्र की उपेक्षा की तो सत्ता सौदागरों, श्रेढ़ी और साधुओ के हाथ चली गयी।
विजय माल्या फ़रारी के मामले में सी बी आई द्वारा निर्लज्जता से दी गई दलील कि”लुक आउट नोटिस गलती से जारी हो गया था”बहुत ही भोंडी हास्यास्पद प्रतीत होती है। देश में गैर जबाबदेह नोकरशाही, पूँजीपतियों और राजनेताओ के अनैतिक गठजोड़ ने देश की अर्तव्यवस्था को तहस-नहस कर डाला है। चौतरफा हताशा, निराशा, बेरोजगारी, महँगाई, भरष्टाचार और आतंकवाद से त्रस्त देशवाशियो ने मोदी को जिताकर बदलाव के लिए पूर्ण बहुमत की सरकार दी। लेकिन मोदी ने देशवासियो के साथ धोका किया।
पूँजीपतियों द्वारा दोनों हाथ से की जा रही लूट से जनता हतप्रभ है। उसे नए रहनुमा की तलाश है। आज जनता जिस पर दाव लगा रही है, वही उसे ठग रहा है।
जनवादी कवि अदम की पक्तिया मौजूदा दौर में सटीक बैठती है…
ये अमीरो से हमारी फ़ैसलाकुन जंग थी,
फिर कहा से बीच में मस्जिद व मंदर आ गए ।
जिनके चेहरे पर लिखी है,जेल की ऊँची फ़सील,
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गए।
देखना सुनना व सच कहना,जिन्हें भाता नही,
कुर्सियो पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए।
कल तलक जो हाशिये,पर भी न आते थे नज़र,
आजकल बाज़ार में उनके कलेण्डर आ गए।
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