कहते हैं राजनीति में एक सप्ताह भी एक लम्बा समय होता है और इतना समय किसी को अर्श से फर्श तक पहुंचाने तो किसी को फर्श से अर्श तक लाने केलिए काफी होता है। मानो अभी कल की बात हो जब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित बहुमत के बाद भारतीय राजनीति पर नज़र रखने वालों ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी और उनकी पार्टी भाजपा की एक और जीत की भविष्यवाणी कर दी थी।
मुझे भी यही लगा था कि 2019 लोकसभा चुनाव में शायद एक मर्तबा फिर से मोदी के विजय रथ को रोकने वाला कोई नहीं होगा। इस आंकलन के पीछे एक वजह थी कमज़ोर विपक्षी पार्टियां, खासकर कांग्रेस में सशक्त नेतृत्व का अभाव।
लेकिन गुजरात चुनाव के नतीजों ने मानो राजनितिक विश्लेषकों को अपने आंकलनों की नए सिरे से समीक्षा करने को मजबूर कर दिया है। गुजरात में भाजपा भले ही जीत गयी लेकिन जिस खूबी से कांग्रेस ने भगवा पार्टी के क़िले में सेंध लगाने में कामयाबी हासिल की वो क़ाबिले तारीफ़ थी। गुजरात में भाजपा को कड़ी चुनौतो मिलेगी इस का आभास पिछले साल होने वाले राज्यसभा चुनाव के नतीजों से हो गया था जब अनथक कोशिशों के बावजूद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस के चाणक्य अहमद पटेल को राज्य सभा में जाने से नहीं रोक पाए।
गुजरात के बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए और इन चुनावों में सत्ताधारी भाजपा को शर्मनाक शिकस्तों का सामना करना पड़ा। कांग्रेस ने यहां न सिर्फ 18 नगरपालिकाओं में से नौ पर अपना क़ब्ज़ा जमाया, बल्कि इस ने धार सहित कम से कम सात ऐसी जगहों पर अपना परचम लहराया जहां पहले भाजपा का क़ब्ज़ा था। धार में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने डेरा डाल कर चुनाव प्रचार की तमाम ज़िम्मेदारियाँ अपने हाथों में ले ली थी और इन उपचुनावों को इस साल होने वाले असेंबली चुनाव से पहले का सेमिफाइनल तक बता डाला था। चूँकि सेमिफाइनल हारने वाली टीमें फाइनल नहीं जीतती हैं, तो इस हिसाब से ये कहना ग़लत नहीं होगा कि मध्यप्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सितारे गर्दिश में रहेंगे।
इस साल जहाँ विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें एक भाजपा शासित राज्य राजस्थान भी शामिल है जहाँ पिछले दिनों तीन महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए। अजमेर और अलवर लोक सभा सीटों के साथ साथ भाजपा को मंडलगढ़ विधानसभा सीट पर भी बड़ी हार का सामना करना पड़ा। ये तीनों ही सीटें पहले भाजपा के क़ब्ज़े में थी। शायद आपको याद न हो, 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी लहार के दम पर राजस्थान की 25 में से 25 सीटों पर जीत हासिल की थी। हाल के उप चुनावों में कांग्रेस की जीत के अंतर और राज्य में वसुंधरा राजे सिंधिया के खिलाग व्याप्त लोगों में रोष को देख कर ऐसा लगता है कि अगले साल के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां भरी नुकसान उठाना पडेगा।
वैसे भी भाजपा को 25 में से 25 सीटें मिलने से रही, इसकी एक वजह तो राज्य में भाजपा के खिलाफ गुस्सा है तो दूसरी ओर यहां के लोग देश के दुसरे वोटरों की तरह प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं। चूँकि हिंदुत्व का झुनझुना पेट भरने केलिए काफी नहीं है और ना ही पढ़ा लिखा युवा वर्ग पकौड़े बेचकर 200 रूपये की रोज़ाना की आमदनी पर गुज़र बसर करने को तैयार है, इसलिए इन वोटरों की एक बड़ी तादाद मोदी और उनकी पार्टी को सबक़ सिखाने केलिए लामबंद हो रही है, ये वही वोटर्स हैं जिन्होंने 2014 में मोदी को एक ऐतिहासिक जीत दिलाने में अहम् रोल अदा किया था।
राजस्थान में कांग्रेस में सचिन पायलट और अशोक गहलोत समर्थकों में आई एकता भी भाजपा केलिए बुरी खबर है।
2014 के लोकसभा चुनाव में मिली भजपा की ऐतिहासिक जीत में राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली और हरयाणा में मोदी की अप्रत्याशित परफॉर्मेंस ने बेहद अहम रोल अदा किया था। राजस्थान के अतिरिक्त, गुजरात में भी NDA ने 26 में से 26, मध्यप्रदेश में 29 में से 27, हरयाणा में 10 में से 7, दिल्ली की सातों सीटों, बिहार में 40 में से 31, महाराष्ट्र में 49 में से 41 और उत्तर प्रदेश में 80 में 71 सीटों पर कामयाबी दर्ज की थी।
इन राज्यों में भाजपा और मोदी के विरुद्ध नाराज़गी और NDA घटक दलों खासकर शिवसेना और तेलुगु देशम पार्टी द्वारा भाजपा का साथ छोड़े जाने की खबर इस तरफ इशारा दे रहे हैं कि अगले साल के चुनाव में 2014 के आंकड़ों को दुहराना भाजपा केलिए असंभव होगा।
इन राज्यों में मिले नुकसान की भरपाई केलिए भाजपा को उन राज्यों में नयी सीटें जीतनी होंगी जहाँ पिछले चुनाव में इसकी पर्फॉर्मन्स ज़्यादा बेहतर नहीं थी। इन राज्यों की सूचि में पश्चिम बंगाल, ओडिशा, और दक्षिण भारतीय राज्य शामिल हैं। बंगाल की बात करें तो भाजपा इस समय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की लोकप्रियता के मुक़ाबले में दूर दूर तक नहीं है। हाल ही में होने वाले उलूबेरिया लोकसभा और नवापारा विधानसभा के उपचुनावों के परिणाम कुछ इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। उलूबेरिया में पहली मर्तबा चुनाव लड़ रही तृणमूल की सजदा अहमद ने भाजपा के प्रत्याशी को तक़रीबन पांच लाख वोटों से पराजित किया।
इसी तरह दक्षिण भारत में भाजपा और मोदी की लोकप्रियता का ना होना भी दर्शाता है कि इस क्षेत्र से अगले लोक सभा चुनाव में इन्हें 2014 के मुक़ाबले में ज़्यादा सीटें मिलने वाली नहीं हैं। ऐसे में ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर कोई चमत्कार न हुआ, फिर वो चमत्कार EVM बाबा द्वारा ही क्यों न हो, 2019 में भाजपा केलिए 150 का आंकड़ा पार करना मुश्किल हो सकता है। लिहाज़ा जिस मोदी के बारे में हम ये कहते नहीं थकते थे कि वो जिस चीज़ को भी छू ले वो सोना बन जाती हैं, अब खुद उन केलिए दुबारा प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा होने वाला है।