कमलेश के. झा
RTI यानी की राइट टू इन्फॉरमेशन (सूचना का अधिकार) को लागू किए हुए आज 10 साल हो गए। आज ही के दिन 12 अक्टूबर 2005 को सूचना के अधिकार के तहत शाहिद रजा बर्नी ने पहली बार अर्जी दाखिल की थी।
RTI के आने से नागरिकों को जानकारी के आधार पर फैसले करने का मौका मिला और लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हुईं। इच्छा के मुताबिक सत्ता का इस्तेमाल करने वालों से परेशान लोग अब बात-बात में कहते हैं, ‘RTI लगा देंगे’।
एक अनुमान के मुताबिक हर साल लगभग 50-80 लाख आरटीआई अर्ज़ियां डाली जाती हैं। लेकिन एक सवालिया निशान यह भी खड़ा होता है कि आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है।
इस अधिकार को पाने के लिए आम भारतीयों ने यह अधिकार पाने के लिए वर्षो संघर्ष किया। सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने सबसे पहले 1990 के दशक में राजस्थान में सड़क पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा मांगा था।
इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण स्लोगन में “हमारा पैसा, हमारा हिसाब” और “हम जानेंगे, हम जिएंगे” हैं।
इसका असर पंचायत से लेकर संसद तक साबित हो गया। इससे लाल फ़ीताशाही दूर करने और अफ़सरशाही की टालमटोल के रवैए को दूर करने में मदद मिली। इसने बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार को चालू रखने में उनकी कोशिशों को भी कमज़ोर कर दिया।
RTI को लागू करने से अधिकारों से जुड़े दूसरे क़ानूनों की मांग भी की जाने लगी। इससे लोगों के अंदर ही पारदर्शिता और उत्तरदायित्व भी बढ़ा। आरटीआई “कमज़ोरों का सबसे ताक़तवर हथियार” बन गया है। इसने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर सवाल उठाने के लिए हर जगह नागरिकों को ताक़त दी है।
इसके जरिए सरकारों के हर तरह के बुरे कामों को उजागर किया गया है। इसका उदाहरण बुनियादी सेवाओं, ज़मीन, खनन और 2-जी और कोयला ब्लॉक आवंटन जैसे घोटालों का उजागर होना है।
यही कारण रहा कि यूपीए और एनडीए, दोनों सरकारों ने ही आरटीआई को कमज़ोर करने की कोशिशें कीं। उन्होंने संशोधन लाने में देर कर या सूचना आयुक्त की नियुक्ति में मनमर्ज़ी कर इसे कमज़ोर किया है। इसाक उदाहरण नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा मुख्य सूचना आयुक्त के पद को आठ महीने तक ख़ाली छोड़ा जाना है। उम्मीद है कि आरटीआई को लागू करने में आ रही तमाम दिक़्क़तों के बावजूद पारदर्शिता का युग बना रहेगा।
लेकिन इन सबके बीच सोचने वाली बात यह है कि RTI के बारे में अभी भी कितने ऐसे लोग हैं जो जानते हैं, कितने लोग हैं जो इसकी अर्जी कर चुके हैं। इसका उदाहरण ग्रामीण भारतीयों से लगाया जा सकता है जहां की जनता शिक्षित ही नहीं है तो फिर यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह आरटीआई का इस्तेमाल कर पाएंगे।
फिर भी बीते दस साल के अनुभव से ये तो साफ़ हो गया है कि भारतीय नागरिक चौंकन्ने, सक्रिय और बोलने वाले हैं। उनकी आवाज़ को और मज़बूत किया जाना चाहिए क्योंकि सच्ची साझेदारी वाले लोकतंत्र बनाने के लिए यही हमारी बुनियादी उम्मीद है।