Pradeep Agrawal
बाबा जी,
आपके द्वारा भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठाई गई आवाज़ से उस समय लोगों को आपसे काफ़ी उम्मीदें बनी। उस वक़्त भ्रष्टाचार पाँव पसार कर दौड़ने लगा था, पर अब जब भ्रष्टाचार हिंसक भी हो चुका है तब आपकी ख़ामोशी काफ़ी रहस्यमयी है। आप योग की किस मुद्रा में लीन हैं, क्या हिंसक भ्रष्टाचार से आपको डर लग रहा है ? आपको कैसा डर, आपको तो भारी भरकम सरकारी सुरक्षा भी मिली हुई है, कुछ सवाल है:
– क्या आपके मापदंड के अनुसार किसी व्यक्ति विशेष या किसी ख़ास राजनैतिक दल द्वारा किया गया भ्रष्टाचार ही सिर्फ़ भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है ?
– क्या आपकी वह लड़ाई भ्रष्टाचार के नाम पर सिर्फ़ कुछ ख़ास लोगों के विरूद्ध थी ?
– क्या उनके अलावा अन्य लोगों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार आपके लिए कोई मायने नही रखता ?
उपरोक्त सवालों के कारण जनता के मन में इस शंका का होना स्वभाविक है कि, कहीं आपने भ्रष्टाचार विरूद्ध जंग का उपयोग सिर्फ़ अपने व्यवसायिक साम्राज्य को बचाने एवं उसके विस्तार के लिए तो नही किया, या फिर भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर तथा अपने द्वारा जुटाए गये अपार जनसमूह के आधार पर आपने सत्ता परिवर्तन का कोई ठेका लिया था ?
जो हुआ सो हुआ बाबा, अगर आपने कोई ग़लती की है तो उसे भूल जाओ, जनता भी भूल जाएगी। अब फिर जागो, योग की मुद्रा से बाहर आओ, अपने स्वार्थ से बाहर निकलो, भ्रष्टाचार दीमक है|
हिन्दी नही तो अंग्रेज़ी में ही संवाद करो, कोई दिक़्क़त नही है, पर इस लड़ाई जारी रखो, वरना आप जैसे योगी पर से जनता का विश्वास उठ जाएगा। विश्वास का टूटना भ्रष्टाचार से ज़्यादा ख़तरनाक है, और अगर कुछ नही कर सकते तो छोड़ो इस मिशन को, जनता से माफ़ी माँग कर लग जाओ अनुलोम-विलोम में, अपना व्यवसायिक साम्राज्य बढ़ाओ, कम से कम लोगों को रोज़गार तो मिलेगा।
बिना गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करते हुए सवाल पूछना नकारात्मक सोच तो नही है ना, सवाल पूछने का अधिकार तो बनता है ?
आपका शुभचिंतक
प्रदीप अग्रवाल
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