केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम (एससी/एसटी ऐक्ट) में संशोधन का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। एससी-एसटी कानून पर मचे बवाल के बीच सुप्रीम कोर्ट ने शीर्ष अदालत के मार्च के फैसले को निष्प्रभावी बनाने और एससी/एसटी (अत्याचारों की रोकथाम) कानून की पहले की स्थिति बहाल करने के लिए इसमें किए गए संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका पर शुक्रवार (7 सितंबर) को केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया।

बता दें कि एससी/एसटी (अत्याचारों की रोकथाम) कानून में संसद के मानसून सत्र में संशोधन करके इसकी पहले की स्थिति बहाल की गई है। न्यायमूर्ति ए के सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने इस कानून में किए गए संशोधन को निरस्त करने के लिए दायर याचिकाओं पर केंद्र को नोटिस जारी किया। केंद्र सरकार को छह सप्ताह के भीतर नोटिस का जवाब देना है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि संसद के दोनों सदनों ने ‘मनमाने तरीके से कानून में संशोधन करने और इसके पहले के प्रावधानों को बहाल करने का ऐसे निर्णय किया, ताकि निर्दोष व्यक्ति अग्रिम जमानत के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सके। संसद ने इस कानून के तहत गिरफ्तारी के खिलाफ चुनिन्दा सुरक्षा उपाय करने संबंधी शीर्ष अदालत के निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिये नौ अगस्त को विधेयक को मंजूरी दी थी।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) संशोधन विधेयक लोकसभा में छह अगस्त को पारित हुआ था। विधेयक में एससी/एसटी के खिलाफ अत्याचार के आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत के किसी भी संभावना को खत्म कर कर दिया। इसमें प्रावधान है कि आपराधिक मामला दर्ज करने के लिए किसी प्रारंभिक जांच की आवश्यकता नहीं है और इस कानून के तहत गिरफ्तारी के लिये किसी प्रकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
शीर्ष अदालत ने इस कानून का सरकारी कर्मचारियों के प्रति दुरूपयोग होने की घटनाओं का जिक्र करते हुए 20 मार्च को अपने फैसले में कहा था कि इस कानून के तहत दायर शिकायत पर तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी। न्यायालय ने इस संबंध में अनेक निर्देश दिये थे और कहा था कि एससी/एसटी कानून के तहत दर्ज ममलों में लोक सेवक को सक्षम प्राधिकारी की पूर्व अनुमति के बाद ही गिरफ्फ्तार किया जा सकता है।