लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत की सेना प्रमुख के रुप में नियुक्ति केंद्र की भाजपा सरकार की आलोचना के साथ एक बड़े राजनीतिक विवाद का कारण भी बन गया है।
कांग्रेस और माकपा ने केंद्र सरकार पर प्रहार करते हुए कहा हैं कि भाजपा सरकार ने दो अधिकारियों की वरिष्ठता को नज़र अंदाज किया है। जिनमें दो वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल पी मोहम्मद हारिज़ और लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी हैं।
लेफ्टिनेंट जनरल बक्शी वरिष्ठतम थलसेना कमांडर हैं और वर्तमान में रणनीतिक रूप से संवेदनशील पूर्वी कमान को संभालते हैं। जिसका मुख्यालय कोलकाता में है। लेफ्टिनेंट जनरल हारिज़, मैकेनाइज्ड इंफेंट्री से हैं और हाल ही में उन्हें दक्षिणी कमान का प्रमुख बनाया गया है। जिसका मुख्यालय पुणे में है।
खबरें हैं कि सरकार अब आने वाले हफ्तों में लेफ्टिनेंट जनरल बक्शी को (सीडीएस)रक्षा स्टाफ प्रमुख के रूप में नियुक्त कर सकती है।
आखिरी बार केंद्र सरकार ने एक जनरल को सेना प्रमुख बनने की अनुमति 1983 में दी थी। तब इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की वरिष्ठता की अनदेखी करते हुए जनरल एएस वैद्य को सेना प्रमुख के रूप में नियुक्त करने की अनुमति दी थी। हालांकि, कई अधिकारियों के अनुसार, वैद्य को नियुक्त करने का फैसला जाएज़ था। क्योंकि सिन्हा की तुलना में वो विशेष उपलब्धियों वाले अधिकारी थे।
लेफ्टिनेंट जनरल सिन्हा ने तब इसके विरोध में इस्तीफा दे दिया था।
अजीत डोभाल लिंक
अब जनरल रावत की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी और अधिक उपयुक्त उम्मीदवारों को पीछे करने के कारणों पर क़यास लगाए जा रहें हैं।
कम से कम दो सेवारत सेना कमांडरों ने नाम न छापने की शर्त पर जनता का रिपोर्टर को बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने सेना में शीर्ष पद के लिए अपने ‘साथी गढ़वाली’ की नियुक्त करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डोभाल और जनरल रावत दोनों ही कथित तौर पर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में एक ही जिले से ताल्लुक रखते हैं।
संयोग से, नए रॉ प्रमुख नियुक्त हुए अनिल धस्माना भी डोभाल के गृह जिले पौड़ी के निवासी है।
दूसरा सिद्धांत जिसकी बड़े रुप से चर्चा की गई है वो है भारत में पहले मुस्लिम सेना प्रमुख बनने के लिए जनरल हारिज़ की नियुक्ति को रोकना।
लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग, जिन्होंने वेलिंगटन में डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी के तीन जनरलों को पढ़ाया इंडियन एक्सप्रेस को बताया, ” नए सेना प्रमुख का चयन करने के लिए सरकार को विशेषाधिकार है। ये 1983 में एक बार पहले भी हुआ था लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा के मामले में जब किसी वरिष्ठ अधिकारी की अनदेखी की गई थी। लेकिन सरकार द्वारा चयन के लिए मापदंड स्पष्ट नहीं है। जम्मू-कश्मीर में सेवा में रहते हुए काम करने में कोई बड़ी शानदार बात नहीं है। अगर कल युद्ध हो जाए, यह मैदानों और रेगिस्तान में लड़ा जा सकता है। फिर क्या होगा?।”
सरकारी सूत्रों का कहना है कि जनरल रावत को सैन्य कारर्वाई में और भारतीय सेना में विभिन्न कार्यात्मक स्तरों पर सेवा करने का जबरदस्त अनुभव है।
हालांकि जो अधिकारी जनरल रावत को जानते हैं वो इस बात से सहमत नहीं हैं।
एक अधिकारी ने पहचान उजागर ना करने की शर्त पर जनता का रिपोर्टर से कहा, “जम्मू एवं कश्मीर में रावत के प्रदर्शन की रिपोर्ट बस बढ़ा चढ़ा कर कही गई हैं। जनरल रावत के 2007 में 5 सेक्टर RR (राष्ट्रीय राइफल्स) के समय के साथ थे और उस समय उनका परफार्मेंस बड़ा सुस्त था। । NSA के साथ अपने निजि संपर्कों के कारण उन्हें टॉप जॉब मिली है।”
अपनी पहचान और बड़े लोगों से पहचान का फायदा उठाने के इलज़ाम जनरल रावत पर पहले भी लगे हैं। IMA में सेना के एक कैडेट के रूप में रावत को स्वार्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित किया गया था। और उन्हें ये सम्मान आर्डर ऑफ़ मेरिट में पांचवे स्थान पर होने के बावजूद दिया गया था। जबकि सोर्ड ऑफ़ ऑनर ट्रेनिंग के दौरान हर क्षेत्र में उच्च स्थान करने वाले कैडेट को दिया जाता है।
एक फौजी कमांडर के अनुसार उन्हें ये सामान IMA के उस समय के कमाडेंट गंजू रावत की वजह से मिली थी। क्योंकि गंजू रावत, जो बाद में सेना के वाइस चीफ बने 5 गोरखा से थे। उसी बटालियन से जनरल रावत के पिता भी थे। वहाँ भी ये बाते थीं कि गंजू रावत अपने साथी गढ़वाली कैडेट के पक्ष में सहायता कर रहें है अधिक योग्य व्यक्तियों को पीछे करके।
क्या होगा लेफ्टिनेंट जनरल बख्शी और हारिज़ का?
रावत की नियुक्ति पर हो रहे मौजूदा विवाद पर सेना के अधिकारियों का कहना है कि सेना में एक खतरनाक प्रवृत्ति की शुरुवात हो जाएगी जो सेना के अनुशासन’ के लिए बहुत हानिकारक ‘हो सकता है।
दिल्ली में एक सेवारत लेफ्टिनेंट कर्नल ने कहा, “शनिवार को जो हुआ वो एक मजाक से कम नहीं था। दो अधिक योग्य जनरलों की अनदेखी की गई । सच्चाई यह है कि जनरल रावत की नियुक्ति अपने निकटतम संबंधो की वजह से हुई है ये बात पब्लिक की जानकारी में आ गई है। भविष्य में सात कमांडर और एक वाइस चीफ सक्रिय रूप से सत्ताधारी नेताओं की अच्छे लोगो की लिस्ट में आने के लिए प्रयास करेंगें और सशस्त्र बलों का राजनीतिकरण करना ये बहुत खतरनाक हो जाएगा। ”
जहां तक लेफ्टिनेंट जनरल बख्शी और हारिज़ का सवाल है। इन दोनों का सेवा कार्यकाल बहुत कम रह गया है। लेफ्टिनेंट जनरल हारिज़ का कार्यकाल कम से कम एक साल है। जबकि लेफ्टिनेंट जनरल बक्शी का कार्यकाल एक साल से भी कम है। दोनों नए सेना प्रमुख जनरल रावत के कार्यकाल के दौरान सेवानिवृत्त हो जाएंगे। अगर वे, उससे पहले इस्तीफा देना ना चुने जो कि लेफ्टिनेंट जनरल सिन्हा ने किया था।
अधिकारियों जो इन दोनों जनरलों को जानते हैं उन्होंने इन दो जनरलों के इस्तीफा देने की किसी भी संभावना से इनकार किया है ‘इस तरह का निर्णय मौजूदा माहौल में दोनों जनरलों के लिए बुद्धिमान नहीं हो सकता।’
एक अधिकारी ने कहा, ” अन्याय के विरोध में इस्तीफा देने पर तुम एक हीरो बन जाते हो जैसा कि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में होता है। लेकिन भारत में लोगों बहुत जल्दी भूल जाते हैं। वे इस्तीफा देने की राह चुनते हैं तो उनकी गुमनामी चले जाएंगे। तो उनके लिए सबसे अच्छी बात यही है कि वो अपना कार्यकाल को पूरा करें और सम्मान और गर्व के साथ अपने कैरियर को समाप्त करें। ”
आगे का रास्ता क्या है?
कई सैन्य अधिकारियों का कहना है कि, आगे जाने के लिए सरकार को एक बोर्ड की स्थापना करनी चाहिए, जो ‘राजनीति की दुनिया से भी नुमाईंदगी करें।’ ये बोर्ड स्पष्ट रूप सेना प्रमुख को चुनने का मापदंड घोषित करे और कम से कम 3-5 योग्य उम्मीदवारों को शोर्टलिस्ट करें और तब एक प्रमुख की घोषणा सरकार करे।
ये उस तर्ज पर है जैसे पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने संयुक्त कमान के अध्यक्ष नियुक्त करने के लिए एक बोर्ड गठित करके 50 उम्मीदवारों को छांटा था ।
बाद में उस लिस्ट को घटा कर 5 लोगों का कर दिया गया था और उनमें से एक को संयुक्त कमान की ज़िम्मेदारी दी गयी थी ।
बिना परिभाषित किए इस चयन प्रक्रिया से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने और बड़ी परेशानियों को दावत दे दी है। जिससे आने वाले वर्षों में भारत के सैन्य हितों को चोट पहुँचेगी।