विचाराधीन कैदियों को मार गिराकर जेल प्रशासन ने छुपाई अपनी लापरवाही

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दिवाली की रात जेल प्रशासन की चूक से फरार आठ विचाराधीन कैदियों जिनको अंडर ट्रायल रखा गया था, पुलिस ने एनकांउटर कर मार गिराया। इन आठों आरोपियों में मोहम्मद खालिद अहमद (सोलापुर, महाराष्ट्र), मोहम्मद अकील खिलजी (खंडवा, मध्य प्रदेश), मुजीब शेख (अहमदाबाद, गुजरात), मोहम्मद सलिक, जाकिर हुसैन सादिक, मेहबूब गुड्डू, अमजद को अदालत में फैसला आने के बाद सजा सुनायी देनी थी या फिर निर्दोष साबित होने पर छोड़ दिया जाना था।
लेकिन उससे पहले ही पुलिस ने इन आठों लोगों को तलाश कर एनकांउटर में मार गिराया जबकि पुलिस ने अगर उनको तलाश कर ही लिया था तो गिरफ्तार भी किया जा सकता था? आठों लोगों के पास किसी तरह के कोई हथियार नहीं थे। जब पुलिस आसानी से इन लोगों को गिरफ्तार कर सकती थी तो उनको मारने की जरूरत क्या थी?

पुलिस की इस तानाशाही कार्यवाही के पीछे गुजरात माॅडल की छवि के अक्स उभरे नज़र आए। मोदी सरकार में पहले भी फर्जी एनकांउटर की कहानी और प्रशासनिक लापरवाही साथ ही दबाव की राजनीति का ये एक और नया उदाहरण है।

दिवाली की रात भोपाल सेन्ट्रल जेल में लापरवाही का क्या आलम था कि बंद कैदियों ने भागने की हिमाकत दिखाई हम इस पर बात करने की बजाय एक तरफा आंतकियों को मार गिराने का मेडल अपने सीने पर चिपकाए नज़र आ रहे है। मोदी राज में इस नये चलन का फैशन अब सरकार की आदत बन गयी है। जहां आपनी लापरवाही और नाकामियों को छुपाने के लिये तरह-तरह प्रोपगंडे इस्तेमाल किए जाते है। जब सरकार के 2 साल गुजर जाने के बाद भी विकास कहीं ढुंडे से नहीं मिलता अगर कहीं मिलता है तो सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी, सैना के बलिदान का क्रेडिट लुटने के तरीके और तानाशाही, फरमान किसको क्या खाना है? क्या पहनना है? कहां जाना है? कहां आना है?

अभी तक ये फैसला नहीं हुआ था कि मारे गए आठों लोग आंतक की घटनओं में सलिंप्त थे या नहीं लेकिन पुलिस ने अपने निकम्मेपन को छिपाने के लिये इस कहानी का ही अंत कर दिया। पुलिस ने इन लोगों को क्यों मारा ये आवाज़ कहीं नहीं उठने वाली अगर कुछ सुनाई देता है तो सिर्फ इतना कि आठ आंतकियों को मार गिराया गया। जब सरकार और उनकी पुलिस खुद ही ‘आॅन द स्पाॅट’ फैसले कर रही है तो इन अदालतों को बंद कर देना चाहिए और फरमान जारी कर देना चाहिए कि जो हम कर रहे है वो न्यायोचित है। भले ही आप इसको माने या ना माने।

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