रिफत जावेद
दिल्ली उच्च न्यायालय के इस बयान के बाद कि दिल्ली गैस चैम्बर बनी हुई है, ने दिल्ली वासियों को सकते में डाल दिया है। दिल्ली सरकार ने समय बर्बाद किये बग़ैर आनन फानन में 13 सुझावों का एलान किया। लेकिन इनमें से जिस सुझाव ने सब से बड़ा सयासी बवाल खड़ा कर दिया है वह था एक जनवरी से दिल्ली की सड़कों पर बारी बारी से ऑड और इवन नंबर की गाड़ियों को चलाये जाने की पेशकश करना।
अभी सरकार के कारंदों ने इस की सिर्फ घोषणा मात्र ही की थी कि अरसे से एक ख़ास तरह की सियासत करते आ रहे राजनीति के ठीकेदारों ने इस का विरोध करना शुरू कर दिया।
दिल्ली विश्व का पहला शहर नहीं है जहां दूषित पर्यावरण और ट्रैफिक की व्यवस्था चुस्त करने केलिए इस तरह का क़दम उठाया गया हो। लंदन में 2003 में उस समय के मेयर केन लेविंग्स्टन ने शहर में बढ़ती ट्रैफिक की जटिल समस्या से निपटने केलिए कन्जेस्चन चार्ज शुरू किया था जिसके तहत लंदन के मध्य में दाखिल होने वाली गाड़ियों को प्रतिदिन के हिसाब से एक तय राशि का भुगतान करना पड़ता है जिसे कन्जेस्चन चार्ज कहते हैं।
इस सिस्टम के शुरू होते ही ना सिर्फ लंदन के सब से व्यस्त रहने वाले मध्य में ट्रैफिक की समस्या में बेहद सुधार हुआ बल्कि इसका असर शहर के वातावरण पर भी पड़ा और वायु प्रदुषण के मामले में काफी बेहतरी देखी गई।
लंदन में कन्जेस्चन चार्ज जो शुरू में पांच पाउंड हुआ करता था अब बढ़ कर साढ़े ग्यारे पाउंड प्रति गाडी प्रति दिन हो चूका है। इस के बावजूद, किसी को ना 2003 में शिकायत थी और न अब है।
अच्छा हुआ लंदन दिल्ली नहीं था और न तो लेबर पार्टी के लेविंग्स्टन अरविन्द केजरीवाल थे और न ही विपक्ष में उस समय की कोन्सेर्वटिवे पार्टी भाजपा या कांग्रेस थी। शुक्र है की ऐसा नहीं था वरना लंदन में गाडी चलाना आज एक सिर्फ ख्वाब बन चूका होता और पर्यावरण पर इस के दुष्परिणाम की कल्पना भी नहीं की जा सकती |
इस तरह के प्रयोग दुसरे देशों में भी हुए, 2004 में बीबीसी केलिए जब मैं एथेंस ओलिंपिक कवर करने जब ग्रीस गया तो मैंने औड और इवन नंबर की गाड़ियों का प्रयोग होते देखा। ये अलग बात है वहां ये प्रयोग उस हद तक कामयाब न हो सका क्योंकि लोगों ने दो दो गाड़ियां लेकर इस नए सिस्टम की धज्जियाँ उड़ा दी।
यह वह समय था जब ग्रीस आर्थिक रूप से एक बेहद खुशहाल यूरोपीय देश के तौर पर देखा जाता था। लेकिन 2008 में आने वाली आर्थिक मंदी ने जहां कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था की नींव हिलाकर रख दी तो ग्रीस पर इस मंदी का सबसे बुरा असर पड़ा और देश को आर्थिक दिवालियेपन से बाहर निकलने केलिए कई मौक़ों पर यूरोपीय संघ के दुसरे देशों के सहारे की ज़रुरत पड़ी।
शायद औड एंड इवन गाड़ियों का सिस्टम आज वहां शुरू हुआ होता तो इस की कामयाबी तय थी क्यों अब एथेंस में लोगों के पास दो गाड़ियां तो छोड़िये शायद एक भी खरीदने के पैसे नहीं बचे हैं।
भारत में आज समस्या ये नहीं है कि हमें समस्याओं से निपटना नहीं आता है, हमारी सबसे बड़ी समस्या ये है कि हम हर उस फैसले और सुझाव को राजनीतिक रंग देने से नहीं कतराते हैं जिन का सीधा असर हमारी खुद की ज़िन्दगी पर पड़ता है।
चलें थोड़ी देर केलिए मान लें कि अरविन्द केजरीवाल को कुछ नहीं आता है और वह एक नौसिखिया नेता हैं। लेकिन क्या इससे ये सच्चाई ख़त्म हो जायेगी कि इस वक़्त दिल्ली में प्रदुषण की समस्या ने भयावह स्थिति नहीं अख्तयार कर ली है?
इस प्रदुषण को काम करने की ओऱ अगर एक सरकार कोई सुझाव लेकर आती है तो इसका स्वागत करने के बजाय हम अभी से यह साबित करने की होड़ में लग गए हैं कि ये कितना ग़लत फैसला है। दिल्ली की ज़हरीली हवा से सिर्फ अरविन्द केजरीवाल ही नहीं आप और हम सब प्रभावित हो रहे हैं । अगर हफ्ते में कुछ दिन अपनी चमचमाती गाड़ियों के बजाय आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसे मेट्रो या कार पूल करके अपने काम पर चले जाएँ तो आपका क्या बिगड़ जाएगा?
हाँ आप हफ्ते के तीन दिन लोगों को अपनी क़ीमती गाड़ियों की धोंस नहीं जाता पाएंगे, क्यूंकि दिल्ली में आम तौर पर गाडी रखने के पीछे ज़रुरत कम और स्टेटस सिंबल ज़्यादा होता है| यक़ीन मानिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करने का मज़ा भी निराला होता है। एक बार आज़मा कर देखिए तो सही ।
अब समय आ गया है कि हम इन झूठे स्टेटस सिंबल या खोखली सियासी दुश्मनी से ऊपर उठ कर ये सोचें कि हमारे किस फैसले से खुद हमें, हमारे परिवार और बच्चों का भला होने वाला है ।
ये आपको तय करना है कि प्रदूषित माहौल को और ज़हरीला बनने दिया जाये जहां हमारा समय से 10-15 साल पहले मरना तय है या फिर अपनी ख्वाहिशों को क़ुर्बान कर अपने और अपने ब्च्चों के भविष्य को सुरक्षित किया जा सके | वह दौलत भी भला किस काम की जो हमें सेहतमंद और खुशहाल ज़िन्दगी न दे सके।